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NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 21 - In Hindi

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NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 21 Neural Control and Coordination in Hindi PDF Download

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Table of Content
1. NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 21 Neural Control and Coordination in Hindi PDF Download
2. Access NCERT Solutions for Class XI Biology Chapter 21 - तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय
3. NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 21 Neural Control and Coordination in Hindi


Class:

NCERT Solutions for Class 11

Subject:

Class 11 Biology

Chapter Name:

Chapter 21 - Neural Control and Coordination

Content-Type:

Text, Videos, Images and PDF Format

Academic Year:

2024-25

Medium:

English and Hindi

Available Materials:

Chapter Wise

Other Materials

  • Important Questions

  • Revision Notes


NCERT, which stands for The National Council of Educational Research and Training, is responsible for designing and publishing textbooks for all the classes and subjects. NCERT textbooks covered all the topics and are applicable to the Central Board of Secondary Education (CBSE) and various state boards.


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Access NCERT Solutions for Class XI Biology Chapter 21 - तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

1. निम्नलिखित संरचनाओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए–

(अ) मस्तिष्क

उत्तर: (अ) मस्तिष्क : मनुष्य में मस्तिष्क कपाल या क्रेनियम के भीतर सुरक्षित रहता है। मस्तिष्क तीन आवरणों से ढका रहता है जिन्हें मस्तिष्कावरण कहते हैं। ये मस्तिष्कावरण हैं-

  1. दृढतानिका  – श्वेत तंतुमय ऊतक की बनी होती है।

  2. जालतानिका – यह मध्य की पर्त है।

  3. मृदुतानिका – यह सबसे भीतरी आवरण है, जो मस्तिष्क के सम्पर्क में रहती है।

इस पर्त में रुधिर वाहिनियों का जाल बिछा रहता है।

इन झिल्लियों के बीच एक तरल भरा रहता है जिसे सेरेब्रोस्पाइनल तरल कहते हैं। यह द्रव पोषण, श्वसन तथा उत्सर्जन में सहायक है। यह बाहरी आघातों से कोमल मस्तिष्क की सुरक्षा भी करता है। मस्तिष्क को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

  1. अग्रमस्तिष्क

  2. मध्य-मस्तिष्क

  3. पश्च मस्तिष्क

1. अग्रमस्तिष्क या प्रोसेंसेफालों- अग्र मस्तिष्क के तीन भाग होते हैं-

  • घ्राण भाग,

  • सेरेब्रम तथा

  • डाइएनसिफैलॉन।

(i) घ्राण भाग - मनुष्य में घ्राण भाग अवशेषी होता है तथा अग्र मस्तिष्क का मुख्य भाग सेरेब्रम होता है।

(ii) प्रमस्तिष्क या सेरेब्रम – मस्तिष्क का लगभग 2/3 भाग प्रमस्तिष्क होता है। प्रमस्तिष्क दो पालियों में बँटा होता है जिन्हें प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध कहते हैं। दोनों प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध तन्त्रिका तन्तुओं की एक पट्टी द्वारा जुड़े रहते हैं जिसे कॉर्पस कैलोसम कहते हैं।

प्रमस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाएँ इस प्रकार स्थित होती हैं कि उनके कोशिका काय बाहर की ओर स्थित होते हैं। इस भाग को प्रमस्तिष्क वल्कुट कहते हैं। भीतर की ओर तंत्रिका कोशिकाओं पर अक्षतंतु स्थित होते हैं। यह भाग प्रमस्तिष्क मध्यांश कहलाता है। बाहरी भाग धूसर (ग्रे) रंग का होता है। इसे धूसर द्रव्य कहते हैं। भीतरी भाग श्वेत (सफेद) रंग का होता है। इसे श्वेत द्रव्य कहते हैं।

प्रमस्तिष्क की पृष्ठ सतह में तन्त्रिका तन्तुओं की अत्यधिक संख्या होने के कारण यह सतह अत्यधिक मोटी व वलनों वाली (folded) हो जाती है। इस सतह को नियोपैलियम कहते हैं। नियोपैलियम में उभरे हुए भागों को उभार या गहराई तथा बीच के दबे भाग को खाँच या सल्काई  कहते हैं।

तीन गहरी दरारें प्रत्येक प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध को चार मुख्य पालियों में बाँट देते हैं। इन्हें-

फ्रंटल पाली , पैराइटल पाली , टेम्पोरल पालि तथा ऑक्सीपिटल पालि कहते हैं।

प्रमस्तिष्क की गुफाओं को पाश्र्व मस्तिष्क गुहा या पैरासील कहते हैं।

(iii) अग्रमस्तिष्क पश्च या डाइएनसिफैलॉन – यह अग्रमस्तिष्क का पिछला भाग है। इसका पृष्ठ भाग पतला होता है तथा अधर भाग मोटा होता है जिसे हाइपोथैलेमस कहते हैं। हाइपोथैलेमस की अधर सतह पर इन्फन्डीबुलम से जुड़ी पीयूष ग्रन्थि होती है। डाइएनसिफैलॉन की पृष्ठ सतह पर पीनियल काय तथा अग्र रक्त चालक पाया जाता है। डाइएनसिफैलॉन की गुहा तृतीय निलय या डायोसील होती है, यह पार्श्व गुहाओं से मोनरो के छिद्र द्वारा जुड़ी रहती है।

 

2. मध्य मस्तिष्क या मीसेनसिफैलॉन-

यह भाग स्तनियों में बहुत अधिक विकसित नहीं होता है। इसका पृष्ठ भाग चार दृक् पालियों के रूप में होता है, जिन्हें कॉर्पोरा क्वाड़िजेमिना कहते हैं। मध्य मस्तिष्क के पार्श्व व अधर भाग में तंत्रिका ऊतक की पट्टियाँ होती हैं जिन्हें क्रूरा सेरेब्रल कहते हैं। ये पश्च मस्तिष्क को अग्रमस्तिष्क से जोड़ने का कार्य करती हैं। यहाँ दृक् तन्त्रिकाएँ एक-दूसरे को क्रॉस करके, ऑप्टिक किएज्मा बनाती हैं। मध्य मस्तिष्क की संकरी गुहा को आइटर कहते हैं, जो तृतीय निलय को चतुर्थ निलय से जोड़ती है।

 

3. पश्चमस्तिष्क या रॉम्बेनसिफैलॉन-

यह मस्तिष्क का पश्च भाग है। इसे मस्तिष्क वृन्त भी कहते हैं। पश्च मस्तिष्क के दो भाग होते हैं-

(i) अनुमस्तिष्क (ii) मस्तिष्क पुच्छ या मेडुला ऑब्लांगेटा

(i) अनुमस्तिष्क – यह प्रमस्तिष्क के पिछले भाग से सटा रहता है। अनुमस्तिष्क दो पार्श्व गोलाद्घ का बना होता है। अनुमस्तिष्क में बाहरी धूसर द्रव्य तथा आन्तरिक श्वेत द्रव्य होता है। श्वेत द्रव्य में स्थान-स्थान पर धूसर द्रव्य प्रवेश करके वृक्ष की शाखाओं जैसी रचना बनाता है। इसे प्राण वृक्ष या आरबर विटी कहते हैं। अनुमस्तिष्क में गुहा अनुपस्थित होती है। अनुमस्तिष्क के अधर भाग में श्वेत द्रव्य की एक पट्टी होती है जिसे पोंस विरोली कहते हैं।

(ii) मस्तिष्क पुच्छ या मेडुला ऑब्लांगेटा  – यह मस्तिष्क का सबसे पिछला भाग है जो आगे मेरुरज्जु के रूप में कपाल गुहा से बाहर निकलता है। मेडुला की पृष्ठ भित्ति पर पश्च रक्त चालक स्थित होता है। मेडुला की गुहा को चतुर्थ निलय या मेटासोल कहते हैं।

(ब) नेत्र

उत्तर: मनुष्य में एक जोड़ी नेत्र चेहरे पर सामने की ओर नेत्र कपाल के नेत्र कोटर (eye orbit) में स्थित होते हैं। प्रत्येक नेत्र एक तरल से भरे गोलक के रूप में होता है। नेत्र गोलक का 4/5 भाग नेत्र कोटर में और लगभग 1/5 भाग नेत्र कोटर के बाहर स्थित होता है।

नेत्र गोलक की भित्ति तीन स्तरों से बनी होती है। सबसे बाहरी दृढ़ पटल, मध्य रक्तक पटल तथा भीतरी दृष्टिपटल है।

i। दृढ़ पटल या स्क्लेरोटिक – यह तंतुमय संयोजी ऊतक का बना सबसे बाहरी स्तर है। इसका वह भाग जो नेत्र कोटर से बाहर होता है, पारदर्शी होता है तथा इसे कॉर्निया कहते हैं।

(Image Will Be Updated Soon)

 

2. रक्तक पटल या कोरॉइड – यह नेत्र गोलक की भित्ति का मध्य स्तर है। रक्तक पटल संयोजी ऊतक का बना स्तर है जिसमें रुधिर कोशिकाओं का घना जाल होता है। रक्तक पटल में रंग आयुक्त कोशिकाएँ होती हैं, जिस कारण नेत्र का रंग काला, भूरा, सुनहरा या नीला दिखाई देता है।रक्तक पटल का वह भाग जो कॉर्निया के नीचे होता है, थोड़ा पीछे हटकर एक पेशीय पर्दे जैसी रचना बनाता है जिसे आइरिस या उपतारा कहते हैं। आइरिस अरीय तथा वर्तुल पेशियों का बना होता है। आइरिस के मध्य में एक गोल छिद्र होता है जिसे तारा या पुतली कहते हैं। अरीय पेशियाँ तारे के छिद्र को बड़ा करती हैं; अतः इन्हें प्रसारी पेशियाँ कहते हैं। वर्तुल पेशियाँ तारे के छिद्र को छोटा या संकुचित करती हैं; अतः इन्हें स्फिंक्टर पेशियाँ कहते हैं। तारा नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को नियंत्रित करता है।

(Image Will Be Updated Soon)

 

आइरिस के आधार पर रक्तक पटल अत्यधिक मोटा व पेशी युक्त होकर सीलियरी काय बनाता है।

3. दृष्टि पटल या रेटिना – यह नेत्र भित्ति का सबसे भीतरी प्रकाश संवेदी  स्तर है।

रेटिना में रक्तक पटल की ओर एक पतला वर्णक स्तर तथा भीतर की ओर तंत्रिका संवेदी स्तर होता है। तंत्रिका संवेदी स्तर प्रकाश के लिए संवेदनशील होता है। यह निम्नलिखित प्रकार की पर्यों से बना होता है-

(i) दृष्टि शलाकाओं एवं शंकुओं का स्तर – शलाकाओं में दृष्टि पर्पल वर्णक रोडोप्सिन तथा शंकुओं में दृष्टि वाले वर्णक आयोडॉप्सिन पाए जाते हैं। शलाकाएँ प्रकाश व अंधकार में भेद करती हैं, जबकि शंकु रंगों का ज्ञान कराते हैं।

(ii) द्विध्रुवीय न्यूरॉन का स्तर – इसकी तंत्रिका कोशिकाएँ दृष्टि शलाकाओं एवं शंकुओं के स्तर को गुच्छीय कोशिकाओं के स्तर से जोड़ती हैं।

(iii) गुच्छीय कोशिकाओं का स्तर– इसकी कोशिकाओं के एक्सॉन तन्तु मिलकर दृक् तंत्रिका (optic nerve) बनाते हैं। दृक् तंत्रिका जिस स्थान से रेटिना से निकलती है, उसे अन्ध बिन्दु (blind spot) कहते हैं, इस स्थान पर प्रतिबिम्ब का निर्माण नहीं होता है।

नेत्र की मध्य अनुलंब अक्ष पर स्थित रेटिना के मध्य भाग को मध्य क्षेत्र कहते हैं। इस भाग को पीत बिन्दु या मैकुला ल्यूटिया भी कहते हैं। यहाँ उपस्थित एक छोटे से गड्ढे को फोविया सेन्ट्रैलिस कहते हैं। इस स्थान पर सबसे स्पष्ट प्रतिबिंब बनता है।

लेन्स – यह उभयोत्तल, पारदर्शी, रंगहीन व लचीला होता है। यह आइरिस के ठीक पीछे स्थित होता है। लेन्स साधक स्नायु द्वारा सीलियरी कार्य से जुड़ा होता है।

तेजो वेश्म या ऐक्स वेश्म – कॉर्निया तथा लेंस के बीच का स्थान होता है। इसमें जलीय तरल तेजोजल या एक्वेस ह्यूमर भरा रहता है।

काचाभ वेश्म या विट्रियस वेश्म – रेटिना व लेंस के बीच को स्थान है। इसमें जैली सदृश काचाभ जल या विट्रियस ह्यूमर भरा रहता है। जलीय तेजोजल तथा जैली सदृश काचाभ जल सीलियरी कार्य द्वारा स्रावित होते हैं। ये नेत्र की गुहा में निश्चित दबाव बनाए रखते हैं जिससे दृष्टिपटल व अन्य नेत्रपटल यथास्थान बने रहें।

पलक– नेत्र कोटर के ऊपरी व निचले भागों में त्वचा के पेश युक्त भंज पलकों का निर्माण करते हैं। दोनों पलकें सचल होती हैं तथा नेत्र गोलक के खुले भाग को ढक सकती हैं। पलकों की भीतरी उपचर्म पारदर्शी होकर कॉर्निया के साथ समेकित हो जाती है। इसे

नेत्र श्लेष्मा या कंजंक्टिवा- पलकों पर बरौनियाँ पाई जाती हैं।

खरगोश तथा अन्य स्तनियों में एक तीसरी पलक होती है, जिसे निमेषक पटल कहते हैं। यह पलक नेत्रों की सुरक्षा का कार्य करती है। मनुष्य में यह अवशेषी होती है।

अश्रु ग्रंथियां – प्रत्येक नेत्र के बाहरी ऊपरी कोने पर तीन अश्रु ग्रंथियां स्थित होती हैं। इनका स्राव कॉर्निया व कंजंक्टिवा को नाम तथा स्वच्छ बनाए रखता है। नेत्र के भीतरी कोण पर एक अश्रु नलिका होती है जो फालतू स्राव को नासा वेश्म में पहुंचा देती है। जन्म के चार माह पश्चात मानव शिशु में अश्रु ग्रंथियां सक्रिय होती हैं।

मीबोमियन ग्रंथियां ये पलकों में स्थित होती हैं तथा एक तैलीय पदार्थ का स्रावण करती हैं। यह तैलीय पदार्थ कॉर्निया पर फैलकर अश्रु ग्रंथियों के स्रावण को पूरी कॉर्निया पर फैलाता है।

(स) कर्ण

उत्तर: कर्ण श्रवण तथा स्थैतिक संतुलन का अंग है। प्रत्येक कर्ण के तीन भाग होते हैं-

(i) बाह्य कर्ण,

(ii) मध्य कर्ण तथा

(iii) अन्त:कर्ण।

(i) बाह्य कर्ण - मनुष्य में बाह्य कर्ण के दो भाग होते हैं – कर्ण पल्लव तथा बाह्य कर्ण कुहर| 

कर्ण पल्लव केवल स्तनियों में ही पाए जाते हैं। ये लचीली उपास्थि से बनी पंखे नुमा रचना है। कर्ण पल्लव ध्वनि तरंगों को कर्ण कुहर में भेजता है। बाह्य कर्ण कुहर एक अस्थिल नलिका है, जो मध्य कर्ण से जुड़ी रहती है। बाह्य कर्ण कुहरे के अन्तिम सिरे पर एक पर्दे जैसी रचना कर्णपटह होती है।

(ii) मध्य कर्ण - यह करोटि की टिप्पैनिक बुल्ला नामक अस्थि की गुहा में स्थित होता है। मध्य कर्ण कण्ठ कर्ण नलिका या यूस्टेकियन द्वारा ग्रसनी से जुड़ा रहता है। मध्य कर्ण में तीन कर्ण अस्थिकाएँ होती हैं। इन्हें मेलियस, इन्कस तथा स्टेपीज कहते हैं। मैलियस कान के पर्दे से सटी रहती है तथा स्टेपीज अन्त:कर्ण की ओर अण्डाकार गवाक्ष या फेनेस्ट्रा ओवेलिस पर स्थित होती है।

ये तीनों कर्ण अस्थिकाएँ ध्वनि तरंगों को बाह्य कर्ण से अन्त:कर्ण तक पहुँचाने का कार्य करती हैं। मध्य कर्ण दो छिद्रों द्वारा अन्त:कर्ण की गुहा से जुड़ा होता है, इन्हें अण्डाकार गवाक्ष या फेस्ट्रा ओवेलिस तथा वृत्ताकार गवाक्ष या फेनेस्ट्रा रोटन्डस कहते हैं। इन छिद्रों के ऊपर एक झिल्ली उपस्थित होती है।

(Image Will Be Updated Soon)

(iii) अन्तःकरण - अन्त:कर्ण करोटि की टेम्पोरल अस्थि के भीतर स्थित होता है। अन्त:कर्ण एक अर्धपारदर्शक झिल्ली से बनी जटिल संरचना होती है, जिसे कला गहन कहते हैं। कला गहन अस्थि के बने कोष में स्थित रहता है जिसे अस्थियां लेबीरिंथ कहते हैं। अस्थियां लेबीरिंथ में परी लसीका भरा रहता है, जिसमें कला गहन तैरता रहता है। कला गहन के भीतर अन्तः लसीका भरा रहता है। कला गहन के दो मुख्य भाग यूट्रिकुलस तथा सेक्युलस होते हैं। दोनों भाग एक सँकरी सैक्यूलो-यूट्रिकुलर नलिका द्वारा जुड़े रहते हैं। यूट्रिकुलस से तीन अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएँ निकलकर यूट्रिकुलस में ही खुल जाती हैं। अग्र तथा पश्च अर्धवृत्ताकार नलिकाएँ एक साथ सहनलिका के रूप में निकलती हैं। अर्द्धवृत्ताकार नलिकाओं का अन्तिम भाग तुम्बिका के रूप में फूला होता है। सेक्युलस से स्प्रिंग की तरह कुण्डलित कॉक्लियर  नलिका निकलती है। इसमें 2 कुण्डलन होते हैं।

 

2. निम्नलिखित की तुलना कीजिए-

(अ) केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र और परिधीय तंत्रिका तंत्र

(ब) स्थिर विभव और सक्रिय विभव

(स) कोरॉइड और रेटिना।

उत्तर: (अ) केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र और परिधीय तंत्रिका तंत्र की तुलना-

केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र

परिधीय तंत्रिका तंत्र

  1. केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के होते हैं मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी
  2. केंद्रीय तंत्रिका तंत्र सभी को नियंत्रित करता है स्वैच्छिक कार्य हमारे शरीर का।
  3. केंद्रीय तंत्रिका तंत्र मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी से संबंधित संवेदी और मोटर तंत्रिकाओं द्वारा एक अभिवाही और अपवाही तरीके से बनाई गई प्रणाली है
  4. हमारे शरीर के मुख्य कार्य मस्तिष्क (CNS) द्वारा नियंत्रित होते हैं
  5. केंद्रीय तंत्रिका तंत्र से जुड़ा हुआ है संवेदी रिसेप्टर्स, मांसपेशियों और ग्रंथियों एसएनपी द्वारा नियंत्रित शरीर के परिधीय क्षेत्रों में।

  1. परिधीय तंत्रिका तंत्र से बना है नस कपाल, रीढ़ की हड्डी और संवेदी।
  2. परिधीय तंत्रिका तंत्र नियंत्रित करता है और सभी में शामिल होता है अनैच्छिक कार्य हमारे शरीर का।
  3. परिधीय तंत्रिका तंत्र पृष्ठीय और उदर तंत्रिका कोशिकाओं से बना होता है, और रीढ़ की हड्डी और कपाल तंत्रिकाओं का जाल जो एक छोर पर मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी से जुड़ा होता है और दूसरी ओर मांसपेशियों से।
  4. परिधीय तंत्रिका तंत्र अनजाने में आंतरिक अंगों, रक्त वाहिकाओं, चिकनी और हृदय की मांसपेशियों के विभिन्न कार्यों को नियंत्रित करता है।
  5. एसएनपी के मामले में, संवेदी न्यूरॉन्स संवेदी रिसेप्टर्स के तंत्रिका आवेगों को शरीर के विभिन्न भागों में केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में अनुबंधित करते हैं।

 

(ब) स्थिर विभव और सक्रिय विभव की तुलना-

स्थिर विभव

सक्रिय विभव

  1. विश्राम अवस्था में प्लाज्मा झिल्ली में विद्युत विभव के अंतर को प्लाज्मा झिल्ली का स्थिर विभव कहा जाता है।
  2. प्लाज्मा झिल्ली में -70mV का विभव उत्पन्न होता है, जिसे स्थिर कला विभव कहा जाता है।
  3. आराम करने की क्षमता इस बारे में बताती है कि जब एक न्यूरॉन आराम में होता है तो वास्तव में उसके साथ क्या होता है।

  1. जब भी एक्सॉन के किसी भी भाग में उद्दीपन  मिलता है, तब एक्जिमा या बाह्य प्लाज्मा झिल्ली का निध्रुवण हो जाता है।
  2. उस स्थान पर विभवान्तर घटकर 30 mv रह जाता है, इसे सक्रिय विभव कहते हैं।
  3. एक्शन पोटेंशिअल तब होता है जब एक न्यूरॉन संदेश को एक ऑक्स के नीचे भेजता है जो न्यूरॉन सेल बॉडी से दूर होता है।

 

(स) कोरॉइड और रेटिना

कोरॉइड

रेटिना

  1. यह नेत्र गोलक की मध्य परत है|
  2. यह बहुत सारी महीन रक्त वाहिकाओं (ब्लड वेसेल्स) से बना है, जो रेटिना और आरपीई को पोषण की आपूर्ति करती है।
  3. इसके अलावा, यह एक वर्णक भी रखता है, जो धुंधली दृष्टि को रोकने के लिए अतिरिक्त प्रकाश को अवशोषित करता है।

  1. यह नेत्र गोलक की भीतरी परत है|
  2. यह प्रकाश-संवेदी कोशिकाओं से बना होता है जिसे रॉड्स और कोन सा के रूप में जाना जाता है
  3. यह परत प्रकाश के प्रति संवेदनशील होती है, जो हमारी आँख की संरचना के अंदरूनी हिस्से को चमक देती है। 



 

3. निम्नलिखित प्रक्रियाओं का वर्णन कीजिए-

(अ) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का ध्रुवीकरण

(ब) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का विध्रुवीकरण

(स) तन्त्रिका तन्तु के समान्तर आवेगों का संचरण

(द) रासायनिक सिनेप्स द्वारा तन्त्रिका आवेगों का संवहन।

उत्तर: (अ) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का ध्रुवीकरण-

 

(Image Will Be Updated Soon)

 

तन्त्रिका तन्तु के ऐक्सोप्लाज्म में Na+ की संख्या बहुत कम, परन्तु ऊतक तरल में लगभग 12 गुना अधिक होती है। ऐक्सोप्लाज्म में K+ की संख्या ऊतक तरल की अपेक्षा लगभग 30-35 गुना अधिक होती है। विसरण अनुपात के अनुसार Na+ की ऊतक तरल से ऐक्सोप्लाज्म में और K+ के ऐक्सोप्लाज्म से ऊतक तरल में विसरित होने की प्रवृत्ति होती है।

लेकिन तंत्रिका च्छेद या न्यूरीलेमा Na+ के लिए कम और K+ के लिए अधिक पारगम्य होती है। विश्राम अवस्था में ऐक्सोप्लाज्म में ऋणात्मक आयनों और ऊतक तरल में धनात्मक आयनों की अधिकता रहती है। तन्त्रिकाच्छद या न्यूरीलेमा की बाह्य सतह पर धनात्मक आयनों और भीतरी सतह पर ऋणात्मक आयनों का जमाव रहता है। तंत्रिका च्छेद की बाह्य सतह पर धनात्मक और भीतरी सतह पर 70 mV का ऋणात्मक आवेश रहता है। इस स्थिति में तन्त्रिकाच्छद या न्यूरीलेमा विद्युत पेशी या धुवण अवस्था में बनी रहती 

तंत्रिका च्छेद के इधर-उधर विद्युत पेशी अंतर के कारण न्यूरीलेमा में बहुत-सी विभव ऊर्जा संचित रहती है। इसी ऊर्जा को विस्तार कला विभव कहते हैं। प्रेरणा संचरण में इसकी ऊर्जा का उपयोग होता है।

(ब) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का विध्रुवीकरण-

जब एक तन्त्रिका तन्तु को थ्रेशहोल्ड उद्दीपन दिया जाता है तो न्यूरो लामा की पारगम्यता बदल जाती है। यह Na+ के लिए अधिक पारगम्य हो जाती है और K+ के लिए अपारगम्य हो जाती है। इसके फलस्वरूप तन्त्रिका तन्तु विश्राम कला विभव की ऊर्जा का प्रेरणा संचरण के लिए उपयोग करने में सक्षम होते हैं। तन्त्रिका तन्तु को उद्दीप्त करने पर इसके विश्राम कला विभव की ऊर्जा को विद्युत प्रेरणा के रूप में, तन्तु के क्रियात्मक कला विभव में बदल जाती है। यह विद्युत प्रेरणा तन्त्रिकीय प्रेरणा होती है। Na+ ऐक्सोप्लाज्म में तेजी से प्रवेश करने लगते हैं, इसके फलस्वरूप तन्त्रिका तन्तु का विध्रुवीकरण होने लगता है। विध्रुवीकरण के फलस्वरूप न्यूरीलेमा की भीतरी सतह पर धनात्मक और बाह्य सतह पर ऋणात्मक विद्युत आवेश स्थापित हो जाता है। यह स्थिति विश्राम अवस्था के विपरीत होती है।

(स) तन्त्रिका तन्तु के समान्तर आवेगों का संचरण-

जब तन्त्रिकाच्छद (न्यूरीलेमा) के किसी स्थान पर तंत्रिका आवेग की उत्पत्ति होती है तो उत्पत्ति स्थल A पर तन्त्रिकाच्छद Na+ के लिए अधिक पारगम्य हो जाती है, जिसके फलस्वरूप Na+ तीव्र गति से अन्दर आने लगते हैं तथा न्यूरीलेमा की भीतरी सतह पर धनात्मक और बाह्य सतह पर ऋणात्मक आवेश स्थापित हो जाता है। आवेग स्थल पर विध्रुवीकरण हो जाने को क्रियात्मक विभव कहते हैं। क्रियात्मक विभव तन्त्रिकीय प्रेरणा के रूप में स्थापित हो जाता है।

तंत्रिका च्छेद से कुछ आगे B स्थल पर झिल्ली की बाहरी सतह पर धनात्मक और भीतरी सतह पर ऋणात्मक आवेश होता है। परिणामस्वरूप, तन्त्रिका आवेग A स्थल से B स्थल की ओर आवेग का संचरण होता है। यह प्रक्रम सम्पूर्ण एक्सॉन में दोहराया जाता है। इसके प्रत्येक बिन्दु पर उद्दीपन को संपोषित किया जाता रहता है। उद्दीपन किसी भी स्थान पर अत्यंत कम समय तक (0।001 से 0।005 सेकंड) तक ही रहता है। जैसे ही भीतरी सतह पर धनात्मक विद्युत आवेश +35 mV होता है, तंत्रिका च्छेद की पारगम्यता प्रभावित होती है। यह पुन: Na’ के लिए अपारगम्य और K’ के लिए अत्यधिक पारगम्य हो जाती है। K+ तेजी से ऐक्सोप्लाज्म में ऊतक तरल में जाने लगते हैं। सोडियम-पोटैशियम पम्प पुनः सक्रिय हो जाता है जिससे तन्त्रिका तन्तु विश्राम विभवे में आ जाता है। अब यह अन्य उद्दीपन के संचरण हेतु फिर तैयार हो जाता है।

(द) रासायनिक सिनैप्स द्वारा तन्त्रिका आवेगों को संवहन-

अक्षतन्तु के अन्तिम छोर पर स्थित अन्त्य बटन तथा अन्य तंत्रिका कोशिका के डेन्ड्राइट के मध्य एक युग्मानुबन्धन होता है। अत: इस स्थान पर आवेग का संचरण विशेष रासायनिक पदार्थ ऐसेटाइलकोलिन नामक न्यूरो हार्मोन के द्वारा होता है। आवेग के प्राप्त होने पर अन्त्य बटन में उपस्थित स्रावी पुटिकाएँ ऐसेटाइलकोलिन स्रावित करती हैं। यह पदार्थ दूसरी तंत्रिका कोशिका के डेन्ड्राइट में क्रियात्मक विभव को स्थापित कर देता है। अब यही विभव, आवेग के रूप में अगले तन्त्रिका तन्तु की सम्पूर्ण लम्बाई में आगे बढ़ता जाता है। इस प्रकार, एसिटिल कालीन एक रासायनिक दूत की तरह कार्य करता है। बाद में, ऐसेटाइलकोलिन कोएन्जाइम-ऐसीटिलकोलीनेस्टेरेज द्वारा विघटित कर दिया जाता है।

 

(Image Will Be Updated Soon)

 

 

4. निम्नलिखित का नामांकित चित्र बनाइए-

(अ) न्यूरॉन

(ब) मस्तिष्क

(स) नेत्र

(द) कर्ण।

उत्तर: (अ) न्यूरॉन-

(Image Will Be Updated Soon)

 

(ब) मस्तिष्क-

(Image Will Be Updated Soon)

(स) नेत्र-

(Image Will Be Updated Soon)

(द) कर्ण-

(Image Will Be Updated Soon)

5. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

(अ) तन्त्रीय समन्वय

(ब) अग्रमस्तिष्क

(स) मध्य मस्तिष्क

(द) पश्च मस्तिष्क

(ध) रेटिना

(य) कर्ण अस्थिकाएँ

(र) कॉक्लिया

(ल) ऑर्गन ऑफ कॉरटाई

(व) सिनेप्स।

उत्तर: (अ) तन्त्रीय समन्वय – शरीर की विभिन्न क्रियाओं का नियंत्रण तथा नियम सूचना प्रसारण तंत्र द्वारा होता है। इसके अन्तर्गत तत्रिका तन्त्र तथा अंतःस्रावी तन्त्र आते हैं। तंत्रिका निर्माण तंत्रिका कोशिकाओं से होता है। ये कोशिकाएँ उत्तेजनशीलता एवं संवाहकता के लिए विशिष्टीकृत होती हैं। ये आवेगों को संवेदांगों से ग्रहण करके केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र तक और केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र द्वारा होने वाली प्रतिक्रियाओं को अपवाहक अंगों तक पहुँचाने का कार्य करती हैं। अपवाहक अंगों के अन्तर्गत मुख्यतः पेशियाँ तथा ग्रंथियां होती हैं। केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र उद्दीपनों की व्याख्या, विश्लेषण करके प्रतिक्रियाओं का निर्धारण करता है।

(ब) अग्र मस्तिष्क - अग्र मस्तिष्क के तीन भाग होते हैं|

(i) घ्राण भाग,

(ii) सेरेब्रम तथा

(iii) डाइएनसिफैलॉन।

(i) घ्राण भाग -  मनुष्य में घ्राण भाग अवशेषी होता है तथा अग्र मस्तिष्क का मुख्य भाग सेरेब्रम होता है।

(ii) सेरेब्रम -  मस्तिष्क का लगभग 2/3 भाग प्रमस्तिष्क होता है। प्रमस्तिष्क दो पालियों में बँटा होता है जिन्हें प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध कहते हैं। दोनों प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध तन्त्रिका तन्तुओं की एक पट्टी द्वारा जुड़े रहते हैं जिसे कॉर्पस कैलोसम कहते हैं।

प्रमस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाएँ इस प्रकार स्थित होती हैं कि उनके कोशिका काय बाहर की ओर स्थित होते हैं। इस भाग को प्रमस्तिष्क वल्कुट कहते हैं। भीतर की ओर तंत्रिका कोशिकाओं पर अक्षतंतु स्थित होते हैं। यह भाग प्रमस्तिष्क मध्यांश कहलाता है। बाहरी भाग धूसर (ग्रे) रंग का होता है। इसे धूसर द्रव्य कहते हैं। भीतरी भाग श्वेत (सफेद) रंग का होता है। इसे श्वेत द्रव्य कहते हैं।प्रमस्तिष्क की पृष्ठ सतह में तन्त्रिका तन्तुओं की अत्यधिक संख्या होने के कारण यह सतह अत्यधिक मोटी व वलनों वाली (folded) हो जाती है। इस सतह को नियोपैलियम कहते हैं। नियोपैलियम में उभरे हुए भागों को उभार या गहराई तथा बीच के दबे भाग को खाँच या सल्काई कहते हैं।तीन गहरी दरारें प्रत्येक प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध को चार मुख्य पालियों में बाँट देते हैं। इन्हें-फ्रंटल पाली, पैराइटल पाली , टेम्पोरल पालि तथा ऑक्सीपिटल पालि कहते हैं। प्रमस्तिष्क की गुफाओं को पाश्र्व मस्तिष्क गुहा या पैरासील कहते हैं।

(iii) अग्रमस्तिष्क पश्च या डाइएनसिफैलॉन – यह अग्रमस्तिष्क का पिछला भाग है। इसका पृष्ठ भाग पतला होता है तथा अधर भाग मोटा होता है जिसे हाइपोथैलेमस कहते हैं। हाइपोथैलेमस की अधर सतह पर इन्फन्डीबुलम से जुड़ी पीयूष ग्रन्थि होती है। डाइएनसिफैलॉन की पृष्ठ सतह पर पीनियल काय तथा अग्र रक्त चालक पाया जाता है। डाइएनसिफैलॉन की गुहा तृतीय निलय या डायोसील होती है, यह पार्श्व गुहाओं से मोनरो के छिद्र द्वारा जुड़ी रहती है।

(स) मध्यमस्तिष्क- यह भाग स्तनियों में बहुत अधिक विकसित नहीं होता है। इसका पृष्ठ भाग चार दृक् पालियों के रूप में होता है, जिन्हें कॉर्पोरा क्वाड़िजेमिना कहते हैं। मध्य मस्तिष्क के पार्श्व व अधर भाग में तंत्रिका ऊतक की पट्टियाँ होती हैं जिन्हें क्रूरा सेरेब्रल कहते हैं। ये पश्च मस्तिष्क को अग्रमस्तिष्क से जोड़ने का कार्य करती हैं। यहाँ दृक् तन्त्रिकाएँ एक-दूसरे को क्रॉस करके, ऑप्टिक किएज्मा बनाती हैं। मध्य मस्तिष्क की संकरी गुहा को आइटर कहते हैं, जो तृतीय निलय को चतुर्थ निलय से जोड़ती है।

(द) पश्च मस्तिष्क -  के मस्तिष्क का पश्च भाग है। इसे मस्तिष्क वृन्त भी कहते हैं। पश्च मस्तिष्क के दो भाग होते हैं-

(i) अनुमस्तिष्क 

(ii) मस्तिष्क पुच्छ या मेडुला ऑब्लांगेटा 

(i) अनुमस्तिष्क – यह प्रमस्तिष्क के पिछले भाग से सटा रहता है। अनुमस्तिष्क दो पार्श्व गोलाद्घ का बना होता है। अनुमस्तिष्क में बाहरी धूसर द्रव्य तथा आन्तरिक श्वेत द्रव्य होता है। श्वेत द्रव्य में स्थान-स्थान पर धूसर द्रव्य प्रवेश करके वृक्ष की शाखाओं जैसी रचना बनाता है। इसे प्राण वृक्ष या आरबर विटी कहते हैं। अनुमस्तिष्क में गुहा अनुपस्थित होती है। अनुमस्तिष्क के अधर भाग में श्वेत द्रव्य की एक पट्टी होती है जिसे पोंस विरोली कहते हैं।

(ii) मस्तिष्क पुच्छ या मेडुला ऑब्लांगेटा– यह मस्तिष्क का सबसे पिछला भाग है जो आगे मेरुरज्जु के रूप में कपाल गुहा से बाहर निकलता है। मेडुला की पृष्ठ भित्ति पर पश्च रक्त चालक स्थित होता है। मेडुला की गुहा को चतुर्थ निलय या मेटासोल कहते हैं।

(ध) दृष्टि पटल या रेटिना – यह नेत्र भित्ति का सबसे भीतरी प्रकाश संवेदी स्तर है।

रेटिना में रक्तक पटल की ओर एक पतला वर्णक स्तर तथा भीतर की ओर तंत्रिका संवेदी स्तर होता है। तंत्रिका संवेदी स्तर प्रकाश के लिए संवेदनशील होता है। यह निम्नलिखित प्रकार की पर्यों से बना होता है-

(i) दृष्टि शलाकाओं एवं शंकुओं का स्तर – शलाकाओं में दृष्टि पर्पल वर्णक रोडोप्सिन तथा शंकुओं में दृष्टि वॉयलेट वर्णक आयोडॉप्सिन पाए जाते हैं। शलाकाएँ प्रकाश व अंधकार में भेद करती हैं, जबकि शंकु रंगों का ज्ञान कराते हैं।

(ii) द्विध्रुवीय न्यूरॉन का स्तर – इसकी तंत्रिका कोशिकाएँ दृष्टि शलाकाओं एवं शंकुओं के स्तर को गुच्छीय कोशिकाओं के स्तर से जोड़ती हैं।

(iii) गुच्छीय कोशिकाओं का स्तर– इसकी कोशिकाओं के एक्सॉन तन्तु मिलकर दृक् तंत्रिका बनाते हैं। दृक् तंत्रिका जिस स्थान से रेटिना से निकलती है, उसे अन्ध बिन्दु कहते हैं, इस स्थान पर प्रतिबिम्ब का निर्माण नहीं होता है।

नेत्र की मध्य अनुलंब अक्ष पर स्थित रेटिना के मध्य भाग को मध्य क्षेत्र कहते हैं। इस भाग को पीत बिन्दु या मैकुला ल्यूटिया भी कहते हैं। यहाँ उपस्थित एक छोटे से गड्ढे को फोविया सेन्ट्रैलिस  कहते हैं। इस स्थान पर सबसे स्पष्ट प्रतिबिंब बनता है।

लेन्स – यह उभयोत्तल पारदर्शी, रंगहीन व लचीला होता है। यह आइरिस के ठीक पीछे स्थित होता है। लेन्स साधक स्नायु द्वारा सीलियरी कार्य से जुड़ा होता है।

तेजो वेश्म या ऐक्स वेश्म – कॉर्निया तथा लेंस के बीच का स्थान होता है। इसमें जलीय तरल तेजोजल या एक्वेस ह्यूमर भरा रहता है।

काचाभ वेश्म या विट्रियस वेश्म – रेटिना व लेंस के बीच को स्थान है। इसमें जैली सदृश काचाभ जल या विट्रियस ह्यूमर भरा रहता है। जलीय तेजोजल तथा जैली सदृश काचाभ जल सीलियरी कार्य द्वारा स्रावित होते हैं। ये नेत्र की गुहा में निश्चित दबाव बनाए रखते हैं जिससे दृष्टिपटल व अन्य नेत्रपटल यथास्थान बने रहें।

पलक – नेत्र कोटर के ऊपरी व निचले भागों में त्वचा के पेश युक्त भंज पलकों का निर्माण करते हैं। दोनों पलकें सचल होती हैं तथा नेत्र गोलक के खुले भाग को ढक सकती हैं। पलकों की भीतरी उपचर्म पारदर्शी होकर कॉर्निया के साथ समेकित हो जाती है। इसे नेत्र श्लेष्मा या कंजंक्टिवा – कहते हैं। पलकों पर बरौनियाँ पाई जाती हैं।

खरगोश तथा अन्य स्तनियों में एक तीसरी पलक होती है, जिसे निमेषक पटल कहते हैं। यह पलक नेत्रों की सुरक्षा का कार्य करती है। मनुष्य में यह अवशेषी होती है।

अश्रु ग्रंथियां – प्रत्येक नेत्र के बाहरी ऊपरी कोने पर तीन अश्रु ग्रंथियां स्थित होती हैं। इनका स्राव कॉर्निया व कंजंक्टिवा को नाम तथा स्वच्छ बनाए रखता है। नेत्र के भीतरी कोण पर एक अश्रु नलिका होती है। जो फालतू स्राव को नासा वेश्म में पहुँचा देती है। जन्म के चार माह पश्चात मानव शिशु में अश्रु ग्रंथियां सक्रिय होती हैं।

मीबोमियन ग्रंथियां – ये पलकों में स्थित होती हैं तथा एक तैलीय पदार्थ का स्रावण करती हैं। यह तैलीय पदार्थ कॉर्निया पर फैलकर अश्रु ग्रंथियों के स्रावण को पूरी कॉर्निया पर फैलाता है।

(य) कर्ण अस्थिकाएँ – मध्यकर्ण में तीन कर्ण अस्थिकाएँ चल संधियों द्वारा परस्पर जुड़ी रहती हैं। इन्हें क्रमशः मेलियस , इन्कस और स्टैपीज कहते हैं।

  • मैलियस– यह हथौड़ी नुमा होती है। इसका बाह्य संकरा भाग कर्णपटह से तथा भीतरी चौड़ा सिरा इन्कस से जुड़ा होता है।

  • इन्कस – यह निहाई के आकार की होती है। इसका बाहरी चौड़ा सिरा मैलियस से तथा भीतरी संकरा भाग स्टैपीज से जुड़ा होता है।

  • स्टैपीज – यह रकाब के आकार की होती है। इसका सँकरा सिरा इन्कस से और चौड़ा सिरा फेनेस्ट्रा ओवैलिस से लगा होता है। कर्ण अस्थिकाएँ कर्णपटह पर होने वाले ध्वनि कंपनों को अधिक प्रबल करके फेनेस्ट्रा ओवैलिस द्वारा अन्त:कर्ण में पहुँच जाती हैं।

(र) कॉक्लिया – मनुष्य का अन्तःकरण यो का गहन दो मुख्य भागों से बना होता है। यूट्रिकुलस तथा सेक्युलस। सेक्युलस से स्प्रिंग की तरह कुण्डलित कॉक्लिया निकलता है। यह नलिका रूपी होता है।  इसके चारों ओर अस्थिल कॉक्लिया का आवरण होता है। कॉक्लिया की नलिका अस्थिल लेबीरिंथ की भित्ति से जुड़ी रहती है जिससे अस्थिल लेबीरिंथ की गुहा दो वेश्मों में बंट जाती है। पृष्ठ वेश्म को स्कैला वेस्टीबुली कहते हैं तथा अधर वेश्म को स्कैला टिम्पैनी कहते हैं। इन दोनों वेश्म के मध्य कॉक्लिया का वेश्म स्कैला मीडिया होता है।

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(ल) ऑर्गन ऑफ कॉरटाई- कॉक्लिया नलिका की गुहा स्कैला मीडिया की पतली पृष्ठ भित्ति री नर्स कला कहलाती है। अधर भित्ति मोटी होती है। इसे बेसिलर कला कहते हैं। बेसिलर कला के मध्य में कॉरटाई का अंग होता है। इसमें अवलंब कोशिकाओं के बीच-बीच में संवेदी कोशिकाएँ होती हैं। प्रत्येक संवेदी कोशिका के स्वतन्त्र तल पर स्टीरियोसिलिया होते हैं। कॉरटाई के अंग के ऊपर ट्यूटोरियल कला स्थित होती है। संवेदी कोशिकाओं से निकले तन्त्रिका तन्तु मिलकर श्रवण तंत्रिका का निर्माण करते हैं। कॉरटाई के अंग ध्वनि के उद्दीपनों को ग्रहण करते हैं।

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(व) सिनैप्स – प्रत्येक तंत्रिका कोशिका का अक्षतंतु अपने स्वतन्त्र छोर पर टीलोडेन्ड्रिया या एक्सॉन अन्तस्थ नामक शाखाओं में बंट जाता है। प्रत्येक शाखा का अन्तिम छोर घुण्डी नुमा होता है। इसे सिनेप्टिक बटन कहते हैं। ये घुन्डियाँ समीपवर्ती तंत्रिका कोशिका के डेंड्रिट्स के साथ संधि बनाती हैं। इन संधियों को सिनेप्स या युग्मानुबन्धन कहते हैं। युग्मानुबन्धन पर सूचना देने वाली तंत्रिका कोशिका को पूर्व सिनैप्टिक तथा सूचना ले जाने वाली तंत्रिका कोशिका को पश्च सिनेप्टिक कहते हैं। इनके मध्य भौतिक संपर्क नहीं होता। दोनों के मध्य लगभग 20 से 40 mµ का दरार नुमा सिनैप्टिक विदर होता है। इसमें ऊतक तरल भरा होता है। सिनैप्टिक विदर से उद्दीपन या प्रेरणाओं का संवहन तत्रिका संचारी पदार्थों; जैसे-एसिटिल कालीन के द्वारा होता है।

 

6. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए-

(अ) सिनेप्टिक संचरण की क्रियाविधि

(ब) देखने की प्रक्रिया

(स) श्रवण की प्रक्रिया।

उत्तर: शेरिंगटन ने दो तंत्रिका कोशिकाओं के सन्धि स्थलों को युग्मानुबन्धन कहा। इसका निर्माण पूर्व सिनेप्टिक तथा पश्च सिनैप्टिक तंत्रिका तंतुओं से होता है। युग्मानुबन्धन में पूर्व सिनैप्टिक तंत्रिका के एक्सॉन या अक्षतंतु के अन्तिम छोर पर स्थित सिनेप्टिक बटन तथा पश्च सिनैप्टिक तंत्रिका कोशिका के डेन्ड्राइट्स के मध्य संधि होती है। दोनों के मध्य सिनैप्टिक विदर होता है, इससे उद्दीपन विद्युत तरंग के रूप में प्रसारित नहीं हो पाता। सिनेप्टिक बटन या घुंडियों में सिनैप्टिक पुटिकाएँ होती हैं। ये तंत्रिका संचारी पदार्थ से भरी होती हैं। उद्दीपन या प्रेरणा के क्रियात्मक विभव के कारण Ca2+ ऊतक द्रव्य से सिनैप्टिक घुंडियों में प्रवेश करते हैं तो सिनैप्टिक घुंडियों से तंत्रिका संचारी पदार्थ मुक्त होता है। यह तंत्रिका संचारी पदार्थ पश्च सिनैप्टिक, तंत्रिका के डेन्ड्राइट पर क्रियात्मक विभव को स्थापित कर देता है, इसमें लगभग 0।5 मिली सेकंड का समय लगता है।

प्रेरणा प्रसारण या क्रियात्मक विभव के स्थापित हो जाने के पश्चात् एन्जाइम्स द्वारा तन्त्रिका संचारी पदार्थ का विघटन कर दिया जाता है, जिससे अन्य प्रेरणा को प्रसारित किया जा सके। सामान्यतया सिनैप्टिक पुटिकाओं से ऐसेटाइलकोलिन नामक तंत्रिका संचारी पदार्थ मुक्त होता है। इसका विघटन ऐसीटिल कोलीनेस्टीरेज एन्जाइम द्वारा होता है। एपिनेफ्रीन, डोपामाइन, हिस्टेमीन, सोमेटोस्टैटिन आदि पदार्थ अन्य तंत्रिका संचारी पदार्थ हैं। ग्लाइसीन गामा-एमिनो ब्यूटाइरिक आदि तन्त्रिका संचारी पदार्थ प्रेरणाओं के प्रसारण को रोक देते हैं।

(ब) देखने की प्रक्रिया

उत्तर: नेत्र कैमरे की भाँति कार्य करते हैं। ये प्रकाश की 380 से 760 नैनोमीटर तरंगदैर्घ्य की किरणों की ऊर्जा को ग्रहण करके इसे तन्त्रिका तन्तु के क्रिया विभव में बदल देते हैं।

नेत्र की क्रियाविधि- जब उचित आवृत्ति की प्रकाश तरंगें कॉर्निया पर पड़ती हैं, तब कॉर्निया तथा तेजोजल प्रकाश किरणों का अपवर्तन कर देते हैं। ये किरणें तारे से होकर लेंस पर पड़ती हैं। लेन्स इनका पूर्ण अपवर्तन कर देता है और उल्टा प्रतिबिंब रेटिना पर बना देता है। आइरिस तारे को छोटा या बड़ा करके प्रकाश की मात्रा का नियंत्रण करता है। तीव्र प्रकाश में तारा सिकुड़ जाता है तथा कम प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है। कम प्रकाश में तारा फैल जाता है तथा अधिक प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है।

नेत्र द्वारा समायोजन - सीलियरी काय तथा निलंबन स्नायु लेंस के फोकस में अन्तर लाकर वस्तु के प्रतिबिम्ब को रेटिना पर केंद्रित करते हैं। सामान्य अवस्था में नेत्र दूर की वस्तु देखने के लिए समायोजित रहता है। इस समय सीलियरी काय शिथिल रहता है तथा निलंबन स्नायु तना रहता है। इससे लेंस की फोकस दूरी अधिक हो जाती है और दूर की वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिंब बनता हैं।

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पास की वस्तु देखने के लिए सीलियरी काय में संकुचन तथा निलंबन स्नायु में शिथिलन होता हैं। इससे लेंस छोटा व मोटा हो जाता है तथा इसकी फोकस दूरी कम हो जाती है। इससे पास की वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिंब बनता है।

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प्रकाश-रासायनिक परिवर्तन - जब विशिष्ट तरंगदैर्ध्य वाले प्रकाश की किरणें रेटिना पर पड़ती हैं, तब ये शलाकाओं तथा शंकुओं में उपस्थित रसायनों में परिवर्तन करती हैं। जब प्रकाश की किरणें शलाकाओं के रोडोप्सिन पर पड़ती हैं, तब वह रेटिनीन तथा ऑप्सिन में टूट जाता है। अंधकार में शलाकाओं में एंजाइम की सहायता से रेटिनीन तथा ऑप्सिन रोडोप्सिन को, संश्लेषण करते हैं। यही कारण है कि जब हम तीव्र प्रकाश से अंधकार में जाते। हैं, तब एकदम कुछ दिखाई नहीं देता किन्तु धीरे-धीरे स्पष्ट दिखाई देने लगता है।

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(स) श्रावण की प्रक्रिया

उत्तर: कर्ण के निम्नलिखित प्रमुख दो कार्य होते हैं-

(i) कर्ण का प्राथमिक कार्य शरीर का स्थैतिक तथा गतिज संतुलन बनाए रखने तथा

(ii) ध्वनि ग्रहण करना अर्थात श्रवण क्रिया।

अन्त:कर्ण के कला गहन के कॉक्लिया में स्थित कॉरटाई का अंग ध्वनि के उद्दीपनों को ग्रहण करने के लिए उत्तरदायी है।श्रवण क्रिया में कर्ण द्वारा एक विशेष आवृत्ति की ध्वनि कम्पनों को ग्रहण करके कॉरटाई के अंग में स्थित संवेदी कोशिकाओं तक भेजा जाता है। संवेदी कोशिकाएँ इन तरंगों को तंत्रिका के क्रिया विभव में परिवर्तित कर देते हैं। मस्तिष्क के ध्वनि वल्कुट सुनने का कार्य करता है। मनुष्य का कर्ण 16 से 20,000 साइकिल प्रति सेकंड की ध्वनि तरंगों को ग्रहण कर सकता है। बाह्य कर्ण पल्लव ध्वनि तरंगों को कर्ण कुहर में भेज देता है। ध्वनि तरंगें कर्णपटह में कंपन उत्पन्न करती हैं।

मध्य कर्ण की कर्ण अस्थिकाओं द्वारा कर्णपटह से कम्पन अण्डाकार गवाक्ष के ऊपर चढ़ी झिल्ली पर पहुँचते हैं। इसके फलस्वरूप अन्त:कर्ण के स्कैला वेस्टीबुली के परी लसीका में कंपन होने लगता है। यहाँ से कम्पन स्कैला टिम्पैनी के परी लसीका में पहुंचते हैं।

रीसनर्स कला तथा बेसीलर कला में कम्पन होने से स्कैला मीडिया के अन्त:लसीका में कंपन होने लगता है जिससे कॉरटाई के अंग के संवेदी रोमों में कंपन होने लगता है। संवेदी रोमों के कम्पन ट्यूटोरियल कला में कंपन उत्पन्न करके ध्वनि संवेदना की प्रेरणा उत्पन्न कर देते हैं। श्रवण तंत्रिका द्वारा ध्वनि संवेदना मस्तिष्क के ध्वनि वल्कुट तक पहुँच जाती है। ध्वनि की तीव्रता संवेदी रोमों के कम्पन की तीव्रता से ज्ञात होती है। ध्वनि तरंगों के कम्पन वृत्ताकार गवाक्ष की झिल्ली से टकराकर समाप्त हो जाते हैं।

7. (अ) आप किस प्रकार किसी वस्तु के रंग का पता लगाते हैं?

(ब) हमारे शरीर का कौन-सा भाग शरीर का संतुलन बनाए रखने में मदद करता है?

(स) नेत्र किस प्रकार रेटिना पर पड़ने वाले प्रकाश का नियमन करते हैं?

उत्तर: (अ) नेत्र गोलक की रेटिना तंत्रिका संवेदी होती है। इसमें दृष्टि शलाकाएँ तथा दृष्टि शंकु पाए जाते हैं। शंकुओं में दृष्टि वर्णक पाया जाता है। तीव्र प्रकाश में शंकु विभिन्न रंगों को ग्रहण करते हैं। शंकु तीन प्राथमिक रंगों लाल, हरे व नीले से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। ये इन प्राथमिक रंगों को ग्रहण करते हैं। इन प्राथमिक रंगों के मिश्रण से विभिन्न रंगों का ज्ञान होता है।

(ब) अन्त:कर्ण की अर्द्धचन्द्राकार नलिकाओं के तुम्बिका, सेक्युलस तथा यूट्रिकुलस शरीर का संतुलन बनाने का कार्य करती हैं। यूट्रिकुलस तथा सेक्युलस के मैकुला तथा अर्द्धचन्द्राकार नलिकाओं के तुम्बिका में स्थित संवेदी कूटों द्वारा गतिक संतुलन नियंत्रित होता है। जब शरीर एक ओर को झुक जाती है, तब ऑटोकोनिया उसी ओर चले जाते हैं, जहाँ वे संवेदी कूटों को उद्दीपन प्रदान करते हैं। ‘इससे तन्त्रिका आवेग उत्पन्न होता है और मस्तिष्क में शरीर के झुकने की सूचना पहुंच जाती है। मस्तिष्क प्रेरक तंत्रिकाओं द्वारा संबंधित पेशियों को सूचना भेजकर शरीर का संतुलन बनाता है।

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(स) रेटिना पर पड़ने वाले प्रकाश की मात्रा का नियमन उपतारा द्वारा किया जाता है। यह एक मुद्राकार, चपटा, मेलेनिन वर्णक युक्त तंतुपट के रूप में होता है। इसके गोल छिद्र को तारा या पुतली कहते हैं। उपतारा में अरेखित अरीय प्रसारी पेशियाँ तथा अरेखित वर्तुल अवरोधिनी पेशियाँ होती हैं। अरीय पेशियों के संकुचन से पुतली का व्यास बढ़ जाता है और वर्तुल पेशियों के संकुचन से पुतली का व्यास घट जाता है। इस प्रकार ये पेशियाँ क्रमशः मन्द प्रकाश और तीव्र प्रकाश में संकुचित होकर रेटिना पर पड़ने वाले प्रकाश की मात्रा का नियमन करती हैं।

 

8. (अ) सक्रिय विभव उत्पन्न करने में Na+ की भूमिका का वर्णन कीजिए।

(ब) सिनैप्स पर न्यूरोट्रान्समीटर मुक्त करने में Ca++ की भूमिका का वर्णन कीजिए।

(स) रेटिना पर प्रकाश द्वारा आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।

(द) अन्तःकरण में ध्वनि द्वारा तंत्रिका आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।

उत्तर: (अ) सक्रिय विभव उत्पन्न करने में Na+ की भूमिका– उद्दीपन के फलस्वरूप तन्त्रिकाच्छद या न्यूरीलेमा की Na+ के लिए पारगम्यता बढ़ जाने से, Na+ ऊतक तरल से ऐक्सोप्लाज्म में तेजी से पहुंचने लगते हैं। इसके फलस्वरूप तन्त्रिका तन्तु का विध्रुवीकरण हो जाता है और तन्त्रिका तन्तु का विश्राम कला विभव क्रियात्मक कला विभव में बदलकर प्रेरणा प्रसारण में सहायता करता है। तन्त्रिका तन्तु के ऐक्सोप्लाज्म में Na+ की संख्या बहुत कम, परन्तु ऊतक तरल में लगभग 12 गुना अधिक होती है। ऐक्सोप्लाज्म में K+ की संख्या ऊतक तरल की अपेक्षा लगभग 30-35 गुना अधिक होती है। विसरण अनुपात के अनुसार Na+ की ऊतक तरल से ऐक्सोप्लाज्म में और K+ के ऐक्सोप्लाज्म से ऊतक तरल में विसरित होने की प्रवृत्ति होती है।

लेकिन तंत्रिका च्छेद या न्यूरीलेमा Na+ के लिए कम और K+ के लिए अधिक पारगम्य होती है। विश्राम अवस्था में ऐक्सोप्लाज्म में ऋणात्मक आयनों और ऊतक तरल में धनात्मक आयनों की अधिकता रहती है। तन्त्रिकाच्छद या न्यूरीलेमा की बाह्य सतह पर धनात्मक आयनों और भीतरी सतह पर ऋणात्मक आयनों का जमाव रहता है। तंत्रिका च्छेद की बाह्य सतह पर धनात्मक और भीतरी सतह पर 70 mV का ऋणात्मक आकेश रहता है। इस स्थिति में तन्त्रिकाच्छद या न्यूरीलेमा विद्युत पेशी या धुवण अवस्था में बनी रहती है। तंत्रिका च्छेद के इधर-उधर विद्युत पेशी अंतर के कारण न्यूरीलेमा में बहुत-सी विभव ऊर्जा संचित रहती है। इसी ऊर्जा को विश्राम कला विभव कहते हैं। प्रेरणा संचरण में इसकी ऊर्जा का उपयोग होता है।

(ब) सिनैप्स पर न्यूरोट्रान्समीटर मुक्त करने में Ca++ की भूमिका – जब कोई तन्त्रिकीय प्रेरणा क्रियात्मक विभव के रूप में सिनैप्टिक घुण्डी पर पहुंचती है तो Ca++ ऊतक तरल से सिनेप्टिक घुण्डी में प्रवेश कर जाते हैं। इसके प्रभाव से सिनैप्टिक घुण्डी की सिनैप्टिक पूटिका इसकी कला से जुड़ जाती हैं। इससे सिनैप्टिक पुटिकाओं से तंत्रिका संचारी पदार्थ (न्यूरोट्रान्समीटर) मुक्त होकर सिनैप्टिक विदर के ऊतक तरल में पहुँच जाता है और पश्च सिनैप्टिक तंत्रिका कोशिका के ड्रेन्ड्राइट्स पर रासायनिक उद्दीपन द्वारा क्रियात्मक विभव को स्थापित कर देता है।

(स) रेटिना पर प्रकाश द्वारा आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि- जब विशिष्ट तरंग दैर्ध्य वाली प्रकाश की किरणें रेटिना पर पड़ती हैं, तब ये शलाकाओं तथा शंकुओं में उपस्थित रसायनों में परिवर्तन करती हैं।

जब प्रकाश की किरणें शलाकाओं के रोडोप्सिन पर पड़ती हैं, तब वह रेटिनीन तथा ऑप्सिन में टूट जाता है। अंधकार में शलाकाओं में एंजाइम की सहायता से रेटिनीन तथा ऑप्सिन रोडोप्सिन को, संश्लेषण करते हैं। यही कारण है कि जब हम तीव्र प्रकाश से अंधकार में जाते। हैं, तब एकदम कुछ दिखाई नहीं देता किन्तु धीरे-धीरे स्पष्ट दिखाई देने लगता है।

शंकुओं में आयोडॉप्सिन उपस्थित होता है। इसको वर्णक घटक रेटिनीन तथा प्रोटीन घटक फोटोप्सीन होता है। शंकु तीन प्रारंभिक रंगों को ग्रहण करते हैं, जो लाल, नीला व हरा होते हैं। उन्हें तीन प्रकार के शंकुओं द्वारा विभिन्न मात्रा में उद्दीपन ग्रहण से अन्य रंगों का ज्ञान होता है। मनुष्य व दूसरे प्राइमेट्स में दोनों नेत्रों द्वारा एक ही प्रतिबिंब बनता है। ऐसी दृष्टि को द्विनेत्री दृष्टि कहते हैं।

(द) अन्तःकरण में ध्वनि द्वारा तंत्रिका आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि- कर्ण के निम्नलिखित प्रमुख दो कार्य होते हैं-

(i) कर्ण का प्राथमिक कार्य शरीर का स्थैतिक तथा गतिक संतुलन बनाए रखने तथा

(ii) ध्वनि ग्रहण करना अर्थात श्रवण क्रिया।

अन्त:कर्ण के कला गहन के कॉक्लिया में स्थित कॉरटाई का अंग ध्वनि के उद्दीपनों को ग्रहण करने के लिए उत्तरदायी है। श्रवण क्रिया में कर्ण द्वारा एक विशेष आवृत्ति की ध्वनि कंपनों को ग्रहण करके कॉरटाई के अंग में स्थित संवेदी कोशिकाओं तक भेजा जाता है। संवेदी कोशिकाएँ इन तरंगों को तंत्रिका के क्रिया विभव में परिवर्तित कर देते हैं। मस्तिष्क के ध्वनि वल्कुट सुनने का कार्य करता है। मनुष्य का कर्ण 16 से 20,000 साइकिल प्रति सेकंड की ध्वनि तरंगों को ग्रहण कर सकता है।

बाह्य कर्ण पल्लव ध्वनि तरंगों को कर्ण कुहर में भेज देता है। ध्वनि तरंगें कर्णपटह में कंपन उत्पन्न करती हैं।

मध्य कर्ण की कर्ण अस्थिकाओं द्वारा कर्णपटह से कम्पन अण्डाकार गवाक्ष के ऊपर चढ़ी झिल्ली पर पहुँचते हैं। इसके फलस्वरूप अन्त:कर्ण के स्कैला वेस्टीबुली के परी लसीका में कंपन होने लगता है। यहाँ से कम्पन स्कैला टिम्पैनी के परी लसीका में पहुंचते हैं।

रीसनर्स कला तथा बेसीलर कला में कम्पन होने से स्कैला मीडिया के अन्त:लसीका में कंपन होने लगता है जिससे कॉरटाई के अंग के संवेदी रोमों में कंपन होने लगता है। संवेदी रोमों के कम्पन ट्यूटोरियल कला में कंपन उत्पन्न करके ध्वनि संवेदना की प्रेरणा उत्पन्न कर देते हैं। श्रवण तंत्रिका द्वारा ध्वनि संवेदना मस्तिष्क के ध्वनि वल्कुट तक पहुँच जाती है। ध्वनि की तीव्रता संवेदी रोमों के कम्पन की तीव्रता से ज्ञात होती है। ध्वनि तरंगों के कम्पन वृत्ताकार गवाक्ष की झिल्ली से टकराकर समाप्त हो जाते हैं।

 

9. निम्नलिखित के बीच में अंतर बताइए-

(अ) आच्छादित और अनाच्छादित तंत्रिकाक्ष

(ब) दुम्राक्ष्य और तंत्रिकाक्ष

(स) शलाका और शंकु

(द) थैलेमस तथा हाइपोथैलेमस

(य) प्र मस्तिष्क और अनुमस्तिष्क।

उत्तर: (अ)आच्छादित और अनाच्छादित तंत्रिकाक्ष-

आच्छादित  तंत्रिकाक्ष

अनाच्छादित तंत्रिकाक्ष

  1. तंत्रिकाक्ष तथा एक्सॉन के मध्य प्रोटीन युक्त लिपिड पदार्थ मायलिन पाया जाता है।
  2. ये मस्तिष्क और मेरुरज्जु के  व्हाइट मैटर का निर्माण करता है।
  3. इनमे प्रेरणाओं का प्रसारण तीव्र गति से होता है।
  4. ये केंद्रीय तंत्रिका तंत्र और परिधीय तंत्रिका तंत्र बनाते हैं।

  1. तंत्रिकाक्ष तथा एक्सॉन के मध्य मायलिन  का अभाव पाया जाता है।
  2. ये केंद्रीय तंत्रिका तंत्र का ग्रे मैटर बनाता है।
  3. इनमे प्रेरणाओं का प्रसारण मंद गति से होता है।
  4. ये स्वायत्त तंत्रिका तंत्र बनाते हैं।

 

(ब) दुम्राक्ष्य और तंत्रिकाक्ष में अंतर-

 

दुम्राक्ष्य 

तंत्रिकाक्ष

  1. ये तंत्रिका काय के समीप होते हैं। 
  2. ये छोटे और संख्या में अधिक होते हैं।
  3. इनमे कोशिकांग तथा निसेल कण होते हैं।
  4. ये प्रेरणाओं को कोशिका काय तक ले जाते हैं।

  1. ये तंत्रिका काय के  दूरस्थ होते हैं।
  2. ये लंबे और आधार पर बेलनाकार होते हैं।
  3. इनमे कोशिकांग तो होते हैं लेकिन निसेल कण नहीं  होते    हैं।
  4. ये प्रेरणाओं को कोशिका काय से अन्य तंत्रिका कोशिकाओं तक ले जाते हैं।

 

(स) शलाका और शंकु-

शलाका

शंकु

  1. शंकु कोशिकाएँ  स्तनधारी प्राणियों की आँखों के दृष्टि पटल (रेटिना) में उपस्थित एक प्रकार की प्रकाशग्राही कोशिकाएँ होती हैं।
  2. शंकु रंग दृष्टि प्रदान करते हैं और अधिक प्रकाश में काम करते हैं।
  3. शंकु आँखों की केन्द्र में अधिक पाए जाते हैं और केन्द्रीय दृष्टि में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं 
  4. ये बेलनाकार होती हैं। 

  1. आँखों में एक अन्य प्रकार की प्रकाश ग्राही कोशिका भी होती है जिसे शलाका कोशिका  कहते हैं।
  2. शलाकाएँ कम रोशनी में देखने में सक्षम होते हैं और रात्रि दृष्टि प्रदान करते हैं लेकिन उनमें रंग देखने की क्षमता बहुत कम होती है। 
  3. शलाका परिधीय दृष्टि में महत्वपूर्ण होते हैं
  4. ये मुगदर नुमा होती हैं।

 

(द) थैलेमस तथा हाइपोथैलेमस-

थैलेमस

हाइपोथैलेमस

  1. थैलेमस में दो जुड़े हुए लोब होते हैं, प्रत्येक गोलार्ध में स्थित होता है
  2. थैलेमस मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों से जानकारी लेता है और इसे सेरेब्रल कॉर्टेक्स से जोड़ता है, ग्रे पदार्थ की बाहरी परत जहां उच्च स्तर के मस्तिष्क कार्य होते हैं।
  3. ये प्रमस्तिष्क से जुड़ा हुआ रहता है।
  4. इनमे तंत्रिका कोशिकाओं के छोटे छोटे समूह होते हैं।

  1. हाइपोथैलेमस शंकु के आकार का है।
  2. हाइपोथैलेमस शरीर की महत्वपूर्ण चयापचय प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करता है, जिससे तापमान, रक्तचाप, भूख, प्यास और नींद प्रभावित होती है।
  3. ये  थैलेमस क आधार से जुड़ा हुआ रहता है।
  4. इनमे तंत्रिका कोशिकाओं के लगभग एक दर्जन बड़े समूह होते हैं।

 

(य) प्र मस्तिष्क और अनुमस्तिष्क-

प्रमस्तिष्क

अनुमस्तिष्क

  1. ये अग्र मस्तिष्क का मुख्य भाग है।
  2. ये मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग होता है।
  3. नकी बाहरी सतह कटकों  और खाँचों की मौजूदगी के कारण अत्यधिक संवलित होती है।
  4. बाहरी क्षेत्र (प्रमस्तिष्क वल्कुट) में तंत्रिका कोशिकाओं न्यूरॉनों की कोशिका-काय होती है और धूसर रंग का होने के नाते इसे धूसर-द्रव्य  कहते हैं
  5. यह ऐच्छिक पेशी-संकुचनों को आरंभ करता है और उनका नियंत्रण करता है।

  1. ये  पश्च  मस्तिष्क का मुख्य भाग है।
  2. यह मस्तिष्क का अपेक्षाकृत छोटा भाग है जो प्रमस्तिष्क के आधार पर उसके नीचे स्थित होता है।
  3. इसमें संवलनों के स्थान पर अनेक खाँचें  होती हैं।
  4. इसका वल्कुट भाग भी धूसर द्रव्य का बना होता है।
  5. ये शरीर का संतुलन बनाए रखता है।

 

10. (अ) कर्ण का कौन-सा भाग ध्वनि की पिच का निर्धारण करता है?

(ब) मानव मस्तिष्क का सर्वाधिक विकसित भाग कौन-सा है?

(स) केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का कौन-सा भाग मास्टर क्लॉक की तरह कार्य करता है?

उत्तर: (अ) कॉरटाई के अंग की संवेदना ग्राही कोशिकाएँ ध्वनि की पिच को निर्धारण करती हैं तथा उद्दीपनों को ग्रहण करके श्रवण तंत्रिका में प्रेषित करती हैं।

(ब) प्रमस्तिष्क मस्तिष्क का सर्वाधिक विकसित भाग है। यह मस्तिष्क का लगभग 80% भाग बनाता है।

(स) मस्तिष्क मास्टर क्लॉक की तरह कार्य करता है।

 

11. कशेरुकी के नेत्र का वह भाग जहाँ से दृक तंत्रिका रेटिना से बाहर निकलती है, क्या कहलाता है-

(अ) फोविया

(ब) आइरिस

(स) अन्ध बिन्दु

(द) ऑप्टिक किएज्मा (चाक्षुष किएज्मा)।

उत्तर: कशेरुकी के नेत्र का वह भाग जहाँ से दृक तंत्रिका रेटिना से बाहर निकलती है, वे (स) अन्ध बिन्दु (Blind spot) कहलाता है।

 

12. निम्नलिखित में भेद स्पष्ट कीजिए-

(अ) संवेदी तंत्रिका एवं प्रेरक तंत्रिका।

(ब) आच्छादित एवं अनाच्छादित तंत्रिका तन्तु में आवेग संचरण।

(स) एक्वेस ह्यूमर, (नेत्रोद) एवं विट्रियस ह्यूमर (काचाभ द्रव)।

(द) अन्ध बिन्दु एवं पीत बिन्दु।

(य) कपालीय तन्त्रिकाएँ एवं मेरु तन्त्रिकाएँ।

उतर: (अ) संवेदी तंत्रिका एवं प्रेरक तंत्रिका-

संवेदी तंत्रिका

प्रेरक तंत्रिका

  1. इन्हें अभिवाही तंत्रिका कहते हैं।
  2. ये यूनीपोलर होते हैं।
  3. ये संवेदी अंग से प्रेरणाओं को केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र तक पहुंचाते हैं। 

  1. इन्हें अभिवाही तंत्रिका कहते हैं।
  2. ये मल्टीपोलर होते हैं।
  3. ये  केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र  से प्रतिक्रियाओं  को अपवाह तंत्र तक ले जाते हैं।

 

(ब) आच्छादित एवं अनाच्छादित तंत्रिका तन्तु में आवेग संचरण-

आच्छादित तन्त्रिका तन्तु

अनाच्छादित तन्त्रिका तन्तु 

  1. इनमे उच्छलन प्रेरणा प्रसारण  पाया जाता है।
  2. इसमें कम ऊर्जा होती है।
  3. इनमे अनाच्छादित तन्त्रिका तन्तु की तुलना में प्रेरणा संचरण तीव्र होता है 

  1. इनमे प्रेरणा प्रसारण स्व संचारी विद्युत तरंग क रूप में पाया जाता है।
  2. इसमें अधिक  ऊर्जा होती है।
  3. इनमे आच्छादित तन्त्रिका तन्तु की तुलना में प्रेरणा संचरण मंद  होता है।

 

(स) एक्वेस ह्यूमर (नेत्रोद) एवं विट्रियस ह्यूमर (काचाभ द्रव)-

एक्वेस ह्यूमर

विट्रियस ह्यूमर

  1. ये लेंस तथा कोर्निया के मध्य एक्वस गुहा में पाया जाने वाला बेसिक, जलीय तरल होता है।
  2. ये प्रकाश किरणों का अपवर्तन करता है। 

  1. ये लेंस तथा कोर्निया के मध्य वित्रिय्स गुहा में पाया जाने वाला जेली जैसा पाया जाने वाला तरल होता है।
  2. ये प्रकाश किरणों का अपवर्तन नहीं  करता है। 

 

(द) अन्ध बिन्दु एवं पीत बिन्दु-

अन्ध बिन्दु 

पीत बिन्दु

  1. यह रेटिना के मध्य में एक वृत्ताकार पीला बिंदु होता है, जिस पर बना हुआ प्रतिबिंब बहुत स्पष्ट दिखाई देता है, इस स्थान को पीता बिंदु कहते है|
  2. यहाँ शलाका और शंकु नहीं पाए जाते। 

  1. यह रेटिना के सबसे पीछे के भाग में होता है इस स्थान पर प्रकाश का कोई प्रभाव नहीं पड़ता| इस बिंदु से द्रक तंत्रिकाएँ मस्तिष्क तक जाती है|
  2. यहाँ  केवल शंकु  पाए जाते। 

 

(य) कपालीय तन्त्रिकाएँ एवं मेरु तन्त्रिकाएँ-

कपालीय तन्त्रिकाएँ

मेरु तन्त्रिकाएँ

  1. यर मस्तिष्क के विभिन्न भागों से जुड़ी रहती है।
  2. इनकी संख्या 12 जोड़ी रहती है।
  3. ये तीन प्रकार - संवेदी, प्रेरक, और मिश्रण की होती है।

  1. ये  मेरु रज्जु से जुड़ी रहती है। 
  2. इनकी संख्या 31  जोड़ी रहती है।
  3. ये तीन प्रकार -पृष्ठ शाखा , अधर शाखा, और योगी तंत्रिका होती है।

 

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